मैं कभी न तो एमजे का प्रशंसक रहा और न ही रवीश जी आपका कायल. सात जुलाई 2016 को बुधवार को एनडीटीवी की साइट पर -एमजे अकबर के नाम रवीश कुमार का पत्र- पढ़ कर कुछ बातों का कोलाज मन के पन्ने पर उभरने लगा. रवीश जी, जब पत्रकार ही अखबार के मालिक होते थे तब की बात और थी. तब के मूल्य, सरोकार, प्रतिबद्धताएं और प्राथमिकताएं अलग थीं. लेकिन तब भी अपनी तरह की ज्यादतियां थीं. अब जबकि मीडिया में पूंजी का अच्छा-खासा प्रवेश हो गया है. उसके सारे गुण-दोष भी पीछे-पीछे आ गये. मीडिया का कारपोरेटीकरण हो गया है तो परिप्रेक्ष्य के इस बदलाव का कुछ तो असर होगा ही. वही असर है जिसने पत्रकारिता की प्राथमिकताएं बदल डालीं. उसके सारे नखदंत नोंच डाले गये हैं. उदारीकरण की स्तुतियां और आरतियां किस घराने ने नहीं उतारीं. चैनलों का अपना तरीका अलग हो सकता है, पर सब एक ही घाट पर पानी पीते हैं.
एमजे पहले शख्स नहीं जिन्होंने अखबार-राजनीति में आवाजाही की. पर आपका हाहाकार जरूर नया है. इस शगल के चलते उन्होंने भी मीडिया की बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़ीं. सियासत के दांव हारने पर मीडिया की नयी पारी की जलालतें भी झेलीं. रवीश जी हम लोगों को भी कष्ट हुआ था जब उनसे भी पहले उदयन शर्मा ने चुनाव की खातिर रविवार की पत्रकारिता छोड़ी थी. फिर तो वह गायब ही हो गये. संतोष भारतीय का किस्सा तो पुराना ही हो चुका है. वेद प्रताप वैदिक को कौन भूलेगा. टाइम्स ऑफ इंडिया की हिंदी पत्रिकाओं को उन्होंने ही खरीदा था. उनकी राजनीतिक गलबांही तो अभी-अभी तक चरचा में थी. उनकी विद्वत्ता की धाक लोग मानते हैं. और रवीश जी, बिहार के लोग सियासी मोह के कारण आपको भी नहीं भुला पायेंगे. बिहार के गत चुनाव में पूर्वी चंपारण के गोविंदगंज से अपने भाई बीके पांडेय को टिकट दिलवाने के लिए आपने एड़ी-चोटी एक कर दी थी. कांग्रेस ने टिकट दे तो दिया, पर जीत सुनिश्चित करने का दांव अभी बाकी था. सो नीतीश जी का टांका काम आया. छह बार से जिस परिवार के लोग विधायक बनते आ रहे थे. उसी घर से थीं मीना द्विवेदी. वह दो बार लगातार जदयू से विधायक थी. उनका टिकट काट दिया गया. और इस तरह जीत का रास्ता साफ हो गया. इस पर आप क्या कहेंगे.
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