हमसफर

सोमवार, 9 नवंबर 2015

बहुत हो गयी मन की, अब जन की बात करें

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलता ने उन्हें भले ही विकास के गुजराती मॉडल की ब्रांडिंग का मौका दिया, लेकिन बिहार में महागंठबंधन ने इसकी कलई खोल कर रख दी. लोस चुनाव में जिस विकास को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया था, बिहार विस चुनाव में दूर-दूर तक वह नहीं दिखा. गो-मांस के नाम पर वितंडा, नीतीश के डीएनए का सवाल, आरएसएस द्वारा छेड़े गये आरक्षण का जिन्न और जंगलराज पार्ट टू ने मिल कर जैसे बिहार की जनता को झुंझला दिया-झल्ला दिया. नीतीश के सुशासन को अपनी आंखों से देखनेवाले बिहारी मतदाता ने महंगाई से भटकानेवाले असहिष्णुता के मुद्दे को कीमत नहीं दी. भले ही देश भर के बुद्धिजीवी मीडिया ट्यूनर नरेंद्र मोदी के बहकावे में आकर असहिष्णुता का राग अलापते रहे और पब्लिक की पॉकेटमारी (दाल, पेट्रोल, गैस,...) से आंख मूंदे रहे. इसलिए कि महंगाई उनकी सहिष्णुता की हद में थी. लेकिन बिहार के लोगों ने पॉकेट में हाथ डालनेवाले के हाथ काट डालेंगे उन्हें भी नहीं पता था.

दरअसल ब्रांडिंग और इवेंट के भरमा दी गयी जनता की बदौलत दिल्ली की बादशाहत पाये नरेंद्र मोदी पर बहुत जल्द कामयाबी आवेग बन कर सवार हो गयी. बड़बोलापन उसी नशे से निकला है. यदि भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा की तुलना कुत्ते से की है तो आकस्मिक नहीं. हो सकता है यह हार से उपजी खीझ हो, पर है तो उसी पार्टी के नेता का बयान जिसके दुलारे नायक मोदी ने चुनाव से पूर्व डीएनए के दोष की बात की थी. साक्षी महाराज, भाजपा की सांसद साध्वी निरंजन ज्योति उसी घराने के हैं. सफलता के इसी नशे की उपज मन की बात है. जब जो जी में आये वह बोलेंगे. कितना भी जरूरी हो, जी नहीं तो जुबान नहीं खोलेेंगे.

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