हमसफर

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

बहुत मुश्किल में है गजल

पहले पत्रकार व कवि देवेंद्र गौतम की निम्न गजल पढ़ें -

सिलसिले इस पार से उस पार थे

सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?

क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.

उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.

मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.

खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.

तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.


देवेंद्र जी, मैं आह-वाह नहीं कर सकता। बहुत छोटा हूं, इसलिए शाबाशी तो हरगिज नहीं। बस कहूं कि बहुत मजबूर कर दिया आपने कुछ बोलने को। 
देवेंद्र जी को पढ़नेवालों के दरवाजे पर गालिब की यह पंक्ति (पूरा शेर नहीं) अपना सिर पटक रही होगी – ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’ भाव के परिपाक के लिए अनुभूति का तीव्रतम क्षणों से गुजरना बेहद जरूरी होता है, जैसे फल के स्वादिष्ट होने के लिए उसका पकना। आपके मजबूत अशआर को देखकर तो यही लगता है कि आपने कितना वक्त दिया है, धीरज दिया है इसे संवारने मे। आपके धैर्यपूर्ण रचनात्मक वैभव इसे साबित करने के लिए काफी है कि रचनात्मकता अपना व्याकरण और विमर्श खुद ही गढ़ती है। यहां मियां गालिब का अगला पुछल्ला धरा का धरा रह जाता है जब वे आगे कहते हैं - ‘कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक’। देवेंद्र जी जब आप कहते हैं कि ‘उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत/ मेरे अंदर भी कई किरदार थे.’ तो समय का यह अंतर्विरोध किसके भीतर नहीं फनफनाता होगा, कौन होगा जिसे भीतर तक यह पंक्ति नहीं मथ डालेगी। आपकी गजल मुकम्मल तौर पर जो परिदृश्य तैयार करती है बहुधा वह एक बड़ी प्रश्नाकुलता पैदा करती है। ‘क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते, हम सभी ढहती हुई दीवार थे.’ देशकाल को छूकर नहीं गुजरते आप, पूरी तरह दस्तक देते हैं, खटखटाते हैं। दहलाते हैं भीतर तक। सवालों के हथौड़े से। 
मैं यह आपसे नहीं कह रहा हूं, कह भी नहीं सकता। आपकी गजल और नज्म का लुत्फ उठानेवालों से कहना है। भाइयो, आपको फिरंगी Wordsworth की बात याद आ रही है कि नहीं – poetry is the spontaneous overflow of powerful feeling which recollect in tranquility अब इससे बड़ी मिसाल क्या होगी ‘एकाकी क्षणों मे संचित भावों की स्वतःस्फूर्त प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति’ की। जो ताकत, वजन और मिजाज हैं शेर के, वह दौर का तेवर है। लेकिन देवेंद्र जी आप एक गुनाह कर रहे हैं अपनी रचनाओं को बड़े फलक पर आने से रोककर। ‘तुम इबारत थे पुराने दौर के/ हम बदलते वक़्त के अखबार थे.’ - कहने से काम नहीं चलेगा। 
ऐसी गजलों का बाहर आना बेहद जरूरी है। भारत मे वर्चुअल स्पेस की अपनी सीमा है। उससे बहुत अपेक्षा रखकर खुद को क्षुब्ध करेंगे। गजल की मुकम्मल तसवीर ऐसी गजलों के बगैर नहीं बनेगी। ‘बाहर’ से मेरा आशय मुख्यधारा की साहीत्यिक-वैचारिक मिजाज की गंभीर पत्रिकाओं से है। हम वहां आपकी गजल नहीं पढ़ पा रहे हैं, बाहर कहीं नहीं सुन पा रहे हैं तो कहीं न कहीं आपकी उदासीनता का भी इसमें हाथ है। साहित्य से थोड़ा भी आपका वास्ता है तो देशकाल को देखते हुए आप अपने फर्ज नहीं निभा रहे हैं। आत्महनन के रास्ता पर चलने का आप जोखिम उठा रहे हैं। इसलिए एक चुनौती भी दे रहे हैं समकालीन गजल पर सोचनेवाले-विचारनेवालों के लिए। भाइयो सिर्फ वाहवाही से काम नहीं चलनेवाला। या तो हम मिलकर कुछ करें या फिर बहिष्कार करें गजलगंगा का। 
एक पाकिस्तानी शायर की तरह सोचना होगा जिन्होंने बजा फरमाया है- ‘करोड़ों क्यों नहीं लड़ते फिलिस्तीं के लिए मिलकर/ दुआओं से नहीं कटती फकत जंजीर मौलाना।‘ तो यहां सभी मौलानों की मिली-जुली जिम्मेवारी कुछ न कुछ बनती है। अन्यथा गजल की बेहतर तस्वीर से इस काव्य वैभव को बाहर रखने के जिम्मेवार हम भी होंगे।

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