बाबरी मस्जिद मामले में मालिकाने को लेकर आये फैसले पर एक नज़्म...
मुकुल सरल
दिल तो टूटा है बारहा लेकिन
एक भरोसा था वो भी टूट गया
किससे शिकवा करें, शिकायत हम
जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया
ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें
गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून
इंतज़ामिया, एसेंबली सब कुछ
फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून
छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन
सितंबर तो चारागर था मगर
ऐसा सैलाब लेके आया उफ!
डूबा सच और यकीं, न्याय का घर
उस दिसंबर में चीख़ निकली थी !
आह ने आज तक सोने न दिया
ये सितंबर तो सितमगर निकला
इस सितंबर ने तो रोने न दिया
(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला,चिकित्सक)
जनज्वार डाट काम के ६ अक्तूबर के उक्त पोस्ट को देखने के बाद १५ अक्तूबर को प्रतिक्रिया -
मैं नहीं कहता कि मैं कोई वाम का झंडाबरदार हूं। विचारधारा की प्रतिबद्धता एक हद के बाद के बाद अवाम को , जीवन को पीछे छोड़ देती है और पार्टी आगे आ जाती है। लब्बोलुआब यह कि मुसलमान को इस जनतांत्रिक देश में वे सब हक हैं जो इसके नागरिक को। इसी तरह उसका फर्ज होता है कि वह राष्ट्रीय मूल्यों को आम नागरिक की तरह मंजूर करे और अमल में लाए। यह इस मुल्क की महानता नहीं तो और क्या कि कभी के आक्रांता (क्योंकि उनको उनपर गौरव है) के वंशजों को यहां के धार्मिक प्रतीक बन चुके राम को अपनी जन्मभूमि से बेदखल करने का हक मिला हुआ है। अदालत है कि सभी पुरातात्विक सबूतों को किनारे करते हुए आस्था के आधार पर फैसला सुना देता है। अपनी जन्मभूमि तलाशने के लिए राम को दर-दर भटकने को छोड़ दिया जाता है। अदालत के सामने सबूत हैं कि हिंदू ढांचे पर ही मस्जिद बनी है। कुरआन के मुतल्लिक हवाला भी दिया गया है कि हड़पी या गैर स्वामित्व वाली जमीन पर इबादत करना नापाक है। दारूल-उलूम से लेकर देवबंद और कांग्रेस के कासिम अंसारी तक कह चुके हैं कि मस्जिद एक किमी दूर भी बने तो हर्ज क्या (शायद उन्होने यह तंजिया कहा हो)। ऐसे में साहबान हम किस बात को प्रोमोट कर रहे हैं। क्या मुल्क के बंटवारे में आगे रहनेवाली मुस्लिम लीग के साथ आजाद मुल्क में उसके सहारे चुनाव लड़नेवाली कांग्रेस ऐसे में कहां गलत है। ऐसे में कहां गलत है कि आजादी की लड़ाई में कम्यूनिस्टों ने मुल्क के साथ घात किया। क्या बुरा है कि इस मुल्क के लिए आजादी की लड़ाई में हीरो माने जानेवाले सुभाष चंद्र बोष को अंग्रेज को सुपूर्द करने की संधि कर ली युद्ध का भगोड़ा मानकर। हंसुआ-हथौड़ा के बल पर मुट्ठी-भर लोग संसद पहुंचकर करोड़ों की जनता को सांप्रदायिक कहने को आजाद हैं। वाम के परदे में प्रगतिशीलता के फार्मूले में भारतीयता को, यहां के आदर्श-मूल्य, जनभावना को जमकर कोसने की आजादी जिस वाम में थी, उसी की राह चलकर सेकुलरवाद का मोर्चा मजबूत हुआ है। आप मेरे ब्लाग ww.aatmahanta.blogspot.com पर जाएं और कहें कि क्या मैं केसरिया हूं या लाल? हार्वर्ड फास्ट से लेकर माओ तक को खंगाल लें क्या उन्होंने कभी घिसे-पिटे पार्टी लेखन की वकालत की। आप अपनी साइट पर यह क्या कर रहे हैं। कोई बताए आज तक किसी प्रगतिशील दल या संगठन के झंडाबरदार ने कश्मीर के अल्पसंख्यकों पर कुछ भी बोला। इस पर वे ठीक उसी तरह चुप रहे जैसे अफगानिस्तान व पाकिस्तान के अल्पसंख्यक उत्पीड़नों पर चुप रहते हैं। मैं यहां के अल्पसंख्यकों को पीड़ित-शासित रहने को शापित नहीं मानता, पर इतनी तो खुद्दारी होनी ही चाहिए कि आपमें से कोई खुलकर इन मसलों पर बोले। इस तरह की बकवासों को छाप कर किस तरह की काव्य समृदि दे रहे हैं और कैसी जागरुकता और संवेदना के पक्ष में चीजों को ले जा रहे हैं।
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