हमसफर

शनिवार, 14 अगस्त 2010

उधार

(इस स्तंभ में हम आपको ब्लागों की दुनिया में घटित हो रही चीजों के पास तो नहीं ले जाएंगे, पर वहां घटित हो रही विचारणीय और अदभुत चीजों पर आपसे बातचीत करेंगे।।


तो पहले आईना (www.aaeena.blogspot.com/) के ब्लागर कवि ध्यानेंद्रमणि त्रिपाठी की कविता पर कुछ बात हो जाए। साभार उधार।
पहले आप कविता पढ़ लें।

हमनी के जिनगी में
गुस्ताखी के साथ जिंदगी को स्लैंग में सुधारा है।)

(हजूर हमरा के खड़ी बोली कहे में भारी परशानी होखेला,
लेकिन कोशिश करत बानी कि तिपहिया जिन्दगी के कुछ बात राउर लो से कहीं।)

धनेसरा बोला है कि
हम रेक्सा चलाने वाला लो का
जिनगी से चउथा पहिया
हेरा गया है,

रेक्सा का एगो जानकार
बाताया है के बाबू
रेक्सा में पाछे के दुइ पहिया में
दाहिना फ्री होता है
बांया चेन से चलता है,

तभे हमरे समझ में आया
के हमरा शरीर बांयी तरफ
काहे झुका है?
और कि हमरा बांया कंधा से
बांयी जाँघ तक
एतना दर्द काहे रहता है?

दुमका से बनारस
औरी बनारस से दिल्ली
का तिकोना सफर
इहे तिपहिया चलाने के लिए
किये हैं हजूर
चकाचक और एक्जाई
मन्टेन रखते हैं
हम अपना रेक्सा
सेवाभाव में एसप्रेस है
हमार रेक्सा
मखमली मसनंद
और हवाई जहाज है
हमार रेक्सा,

एगो बात अखरता है हजूर
हमरा आधा समय
सवारि से मोल भाव में
जाता है
गरीब लो से ज्यादा
अमीर सवारी को रेक्सा का
केराया कम कराने में
मजा आता है

एक दिन बड़े भाग से
सरकार खुदे हमरे रेक्सा
पे बैइठ गई
और सड़क से सीधे
संसद में पहुँच गई,
उहाँ पहुँच के ऊ हमें
टा टा बाय बाय कइ दिहिस
और दस रुपया में
संसद तक पहुँचावे का
हमार मेहनताना तय
कइ दिहिस,

दस रुपया मे
हजूर आपे बताइये
कतना बीड़ी मिलेगा?
राशन का हाल
राउर को पता है
ई बाजरे के आटा से
सिरिफ कब तक
पेट भरेगा?

हजूर
इतना दर्द भुलाने के लिए
हमरा मन तनी
माल्टा पीने का हुआ
पाउच का दाम देखे
तो सूँघे के काम चला लिया,

हजूर ई कइसा
अभिसाप है कि
रेक्सा में
चउथा पहिया पाप है?
कउन भरोसा
इहे सड़कवा पे चल पायेंगे
जहाँ पंचाइत खाप है?

हजूर
हम लो मेहनत से नहीं डरते
दर्द हैं दिन रात सहते
पसीने की नदी मे हैं बहते
और पुस्ता कि झोपड़पट्टी मे है रहते
किसी से कुछ भी नही कहते,

लेकिन हजूर
राउरे बताइए
कि इ चउथा पहिया
हमपे नजर कब डालेगा?
ई देश का संसद
हमको कब देखेगा?
ई सब सवाल
हमको बहुत परेशान
करता है
हमरा रेक्सा का घण्टी
घनघनान
करता है,

जब हजूर
छीन लेते हैं
आप अपना रेक्सा
तब हमको
बिसवास नही होता
रेक्सा हमरे भीतर
और गोड़े के नीचे
जमीन नही होता,

हजूर
हम आज एगो
गुस्ताखी किये हैं
सपना में अपना रेक्सा लेके
द्वारिका सेक्टर पाँच पे
खड़े हैं,

नोयडा से
मेट्रो आयेगा
खूब सवारी लायेगा
हमरा रेक्सा
कइयो चक्कर लगायेगा,

लेकिन ए हजूर
सपनवा टूट गया है
सरकार का चउथा पहिया
छूट गया है
बदनसीब हैं हम हजूर
हमरा सपना टूट गया है
बाँयी जाँघ पे हुआ था
एगो फोड़ा
रेक्सा चलाने से ऊ
फूट गया है॰॰

-ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी

‘हमनी के जिनगी में’ (वैसे ब्लागर यानी रचनाकार ने ‘जिंदगी’ शब्द लिखा है।) साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को देखनी चाहिए। कविता के भाष्यकारों को देखना चाहिए कि लुच्चे बाजार की लंपटता और उसकी सहुलियतें कितनी भारी पड़ रही हैं जिनसे यह मुल्क बनता है उनके ऊपर। यह मुल्क टाटा-बिरला का नहीं है। अंबानी और जिंदल का भी नहीं है। उनका क्या वे तो एक सीमाहीन देश में रहनेवाले हैं जिनके लिए लंपट बाजार की रासलीला किसी अवतारी से कम नहीं। अंगीभूत सत्ताएं किस तरह रिक्शावाले के भावसागर में ऊभचूभ करते हुए एक पिघलती चादर तान देता है पाठक के ऊपर। इस मुल्क में आठ करोड़ ऐसे लोग है जिनकी रोजाना की आय 20 रुपए भी नहीं। लेकिन दिल्ली विधान सभा में विधायकों के लिए एक लाख मासिक वेतन (भत्ता) करने की मार हो रही है। जीवन के माल असबाब पर इठलाते हुए ये रिक्शावाले अमीरों की हरकत को कैसे देखते हैं उसे ध्यानेंद्र ने काफी गहरे में जाकर देखा-गुना है। यह कविता इसकी मिसाल है कि कविता के लिए सरोकारों का होना कितना जरूरी है। धूमिल की कविता ‘लोहे का स्वाद’ बरबस याद आ जाती है जिसमें कविता की रचनाशीलता के लिए उपजिव्य के संसार से तादात्मय स्थापित करने की बात की है उन्होंने – शब्द किस तरह कविता बनते हैं, इसे देखो, अक्षरों के बीच गिरे आदमी को पढ़ो....
इस दर्द को सुनने के लिए बहुस्तरीय दृश्यों को भेदना होगा। लेकिन यह कवि के सरोकारों से तय होता है। ध्यानेंद्र की कविता में हम देखते हैं कि संवेदना की तरलता में ऊबड़खाबड़ यथार्थ किस तरह पिघलकर मार्मिक धुन में हमें रुलाता है, सोचने पर मजबूर करता है। विचार का ठोसपन यहां वोलाटाईल हो जाता है। कविता के तानेबाने की आग में यथार्थ का तिलिस्म झुलस जाता है। रोजमर्रे के कामकाज किस तरह बाडीलैंग्वेज बनाते हैं रचनाकार की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि इसमें जो भूमिका अदा करता है वह कहीं से भी तथ्यों को बताने के इरादे से नहीं, काव्यात्मक प्रयोजनों का भीतरी अवयव हो जाता है। कवि व्यक्तित्व जब रचनाशीलता को जज्ब कर लेता है तभी इस तरह की रचना सामने आती है।

इस अनोखी कविता को पढ़ाने के लिए धन्यवाद भाई।

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