हमसफर

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

तहखाने से

जीवन

जीवन तब भी था
जब हमारे पास आग नहीं थी
पहिया भी नहीं
और नहीं थी खंड-खंड करती इच्छाएं

नदी-पोखर, खेत-खलिहान, पुरखों की गांठ
इतनी ढीली नहीं पड़ी थी
कि बिलबिलाते इथोपियाओं को छोड़
अमरीका की तरह दुरगम परदेश में बिला जाते

रहस्य की तलाश में
आदमी से कटकर
भटक गए समय का
मंगल अभियान नहीं था जीवन

जब बांझ गुस्से का इजहार हो चुकी हो संसद
जहां मेरी ही मुट्ठी व बटुए
इस्तेमाल किए गए
तमाचे की तरह मुझपर
धकियाया गया था जिसे
कुर्सी उसे मिली
यह भी जीवन है
भ्रष्टाचार के संरक्षण में
जी रहे समय का

यह भी जीवन है कि
रिमोट पर जीता शयन-कक्ष
कुर्सी का गुरुत्वकेंद्र बनता है
और बन जाता है
युद्ध का संचालन केंद्र

जीवन किवाड़ है
मानवी खोहों के बीच अंटका

अपने-अपने अगले मौसम के लिए
जीते हैं जैसे ऊंट, कछुआ, मेढ़क
जीवन भी पोषण के इंतजार में
धैर्य नहीं खोता।


रोटी

(एक)

रोटी हमारे हाथ में आने से पहले
गुजर चुकती है हम में से
गुस्सैल पराजित नदी-सी

चूल्हों पर चढञने से पहले
छा जाती है घर पर
स्वप्नवाही गंध की तरह

रोटी खाने से पहले
खा चुका होता है बच्चा
अपने हिस्से का वसंत

गटक जाता है युवक
चिलचिलाती धूप में
सूखते सपनों का सागर

पी जाती है पीड़ाओं का गंगाजल
रोटी तोड़ती औरतें

रोटी तोड़ती औरतें
टूट-टूट जुड़ती हैं
झेलती हैं देह भर
रोटियां मन-मन

(दो)

दुनिया, बाजार, लोग,...
सारी चीजें रिसती हैं बूंद-बूंद
रोटी के सुराख से इस तरह
कि दीवार ढहने के भय के साथ
चेहरों के प्लास्टर भरभरा जाते हैं

फटते हैं रोटी पर लिपटे गणित के पन्ने
रोटी पर तैनात रहते हैं
भरपूर गोचर-अगोचर संगीनधारी
जो निर्वस्त्र भूख में मरते हैं
दागदार रोटियां घर करती हैं उन में

रोटी खाते हुओं को चबा जाती है रोटी
सरहदें कुतर जाने के बाद
रोटी का सिलसिला खत्म नहीं हो जाता
रोटी खा लेने भर से
रोटी की रेल नींद में भी दौड़ती है
जैसे बुढ़ापे में बचपन
अगली सदी की करवटें
ऊंघती सदी में।


(समकालीन भारतीय साहित्य/मार्च-अप्रैल 1998 में प्रकाशित)

लड़की

जैसे हम अपने तलुए देखते हैं
उसकी जांघें सहलाते हैं
नितंबों को थपथपाते हैं खुले में
अपने स्तन का घाव का दर्द
उसकी आंखों दिखना तो दूर
पीठ के खरोंच तक नहीं देख सकती

खुले में यह सोचकर वह सिहर उठती है वह
क्योंकि मल्लिका सेरावत और राखी सावंत नहीं,
अपनी पीठ की खरोंच तक देखने के लिए
खिड़की दरवाजे बना लेती है अंगोपांग को
और आंखें चिपक जाती हैं दसों दिशाओं पर
‘खतों में कलेजा’ को झोंककर चूल्हों पर रसोई बनाती है
तो धुआं और चेहरे के बीच
पिघलती बर्फ नहीं दिखती, अपनी नागरिकताओं से वंचित
वह नहीं बोल पाती अपनी जबान
अपनी हंसी नहीं हंस पाती
कबका भूल चुकी है अपना रोना
अकेले में खुद को खटखटाकर
खौफनाक गलियों में गुजरती है वह।

मां की शिक्षा

मांओं ने हमें
कलम, कमल और न जाने कितने शब्द
खाने को भूलकर, नहाने को टालकर
इसलिए नहीं सिखाए होंगे कि
हम किसी के दिलो-दिमाग में सुराख करें कलम से
कमल से हम किसी मूरत को खरोंचें
और दूध पीकर खूल बहाएं,

मांओं ने नहीं सोचा होगा
त्याग और धैर्य, कष्ट और तप से सींचे गए असंख्य शब्द
उसी के शरीर पर कोड़े की तरह पड़ेंगे
अपने खून से सींचे गए, पोसे गए शब्दों को
जब आग में झुलसते देखती होगी मांएं
तो क्या गुजरता होगा, मांएं ही जानती हैं।
पढ़े-लिखे बड़े हो गए बच्चों को यह समझ न आएगी।

हमारे छुटपन में सिखाए शब्द ही हैं
कभी हिजड़े उसे ले जाते हैं अपनी गली
उससे खेलते-ठठाते हैं

तो कभी खद्दरधारी मसखरा करते हैं
उन शब्दों का गला घोंटते हैं
जैसे मूक मजदूरों का बोनस, तनख्वाह हो

मांएं किस तरह अबूझ लगने वाले शब्दों को
हमारे स्मृतिगर्भ में डालती हैं
यह उसके आंसू, हंसी या मौन में छिपा है
चुप्पी की गहराई में तैरते
खुशी की हवा में लहराते
अबूझ शब्दों ने खोली
अपनी अर्थपेटियां
मांओं के सिखाए गए असंख्य शब्द
उनके ही बदन पर कोड़े की तरह बरसते हैं
तो मांएं ही हैं जो
आज भी हमें कलम, कमल, प्रेम और न जाने कितने शब्द
सिखाने में लगी हैं।


काबुल से बगदाद

काबुल और बगदाद से खुली गाड़ी
कहां रुकेगी
यूएनओ के ढहते गुंबदों से आती है फुसफुसाहट

बहुत भोले हैं वे जिन्हें इस गाड़ी का धुआं
दूसरे किसी देश के किसी प्रांत के किसी गांव में नहीं दिखता
कुली का काम पा जाने की लालच में
उस धुएं का प्रदूषण नहीं दिखता
नहीं जानते कि यह गाड़ी
रेडियो वेव के वेग से चलती है

शायद यह धुआं ही इतना छा गया कि पार का नजारा
नहीं दिखता कमजोर आंखों को

वे नहीं जानते कि यह गाड़ी पटरी पर नहीं चलती
इसलिए जितना डर बैंकों को लुट जाने क है
उतनी ही आशंका खेत-खलिहानों के रौंदे जाने की भी है
कभी भी कुचली जा सकती है पेड़ के नीचे चलती पाठशाला
और कभी भी पांच सितारा होटल मिट्टी के ढेर में बदल सकता है
हारमोनियम और मृदंगों पर हांफते
चैता और रउगपति राघव...कभी भी गुम हो सकते हैं सिंथेसाइजर में
और कभी भी जेनिफर लोपेज, ब्रिटनी स्पीयर बनती बालाएं
मिट सकती हैं
खतरा जब एक जैसा हो हर जगह
तो बचने के अलग-अलग रास्ते
और भी खतरनाक हो जाते हैं।

(पटना से प्रकाशित गणादेश साप्ताहिक के वार्षिक अंक 2009 में प्रकाशित)


जो बचा है खत्म होने से


(एक)
जहां मूर्तियां खरोंचने वाले हाथों में कूंचियां हैं
हमारे दुधमुंहें सपने छटपटाते हैं वहीं-कहीं
भोजन, वस्त्र और आवास के बिना
छोटी होती हुई ओझल हो गई पृथ्वी
अपने चांद-सितारों के साथ हमारी नजरों में
कि हम इतने ऊंचे उठ गए
हम वहां पहुंच गए हैं
खुरदुरी त्वचा वाली सभ्यता को लेकर
जहां सात आसमान पर जीवन की खोज जारी है
और जीवाश्मों में पूर्वजों की
जहां के पर्यावरण के ताप-दाब
द्रवों को रहने की इजाजत नहीं देते
फूट-फूटकर रोने की स्थिति में
हमारे आंसू नहीं रहे हमारे साथ
प्रकाश वर्षों की इस यात्रा में बिछुड़ गए आंसू
कहीं गड्ढे में अपना सागर तलाश रहे।

( दो )
सेकेंड की सुई पर सवार इस समय ने
दिन और महीने के हिसाब छीन लिया
ऋषि-मुनियों की कामनाएं उदरस्थ कर गए हे सभ्यता पुरुषों !
कुछ करो उपाय
कि पृथ्वी ही पृथ्वी रहे हमारे स्वप्नों में
गाएं हम गीत तो पृथ्वी के
देखें हम स्वप्न तो पृथ्वी के हे कलाकार !
रंगो पृथ्वी को पृथ्वी से !


2006 में कच्चू और शकरकंद

अब कच्चू को कच्चू की तरह नहीं देख सकते आप
नहीं कह सकते – कच्चू खाएगा ?
शकरकंद कहकर गाली भी नहीं दे सकते किसी को
बाजार के सिरमौर हो गए सब
कैसे न हो, बीवी को भरोसा न पानेवाले
अब दुनिया को शीतल पेय की गारंटी देते फिर रहे हैं
रौनक हो गए हैं गल्ले की
अब ये हाट से आ गए बाजार में
हो सकता है पाउचों में समा जाएं नया भेस लेकर

गदहा कहें तो पीटे जा सकते हैं
यह एक विजयी उम्मीदवार का चुनाव चिह्न है
उनके टामी को कुत्ता कहकर देख लें
बोलना भूलकर भौंकने लग जाएंगे
उतना ही खतरनाक हो गया है
कच्चू और शकरकंद लगाकर गाली देना
मेमें अपने हाथों से छीलती हैं कच्चू और शकरकंद
ठीक ही तो बाबू लोग अब ले जाने लगे हैं शकरकंद
अपने बास को खुश करने।

अब तो हाट की चीफ गेस्ट हो गए हैं
बड़े नाज-नखरे हो गए हैं इनके
पटल 16 रुपए, कच्चू 14 रुपए
टमाटर 16 रुपए, शकरकंद 18 रुपए
किसी का भी कान काट दें ये

अब आप ही कहें भला
कौन कहेगा कच्चू को कच्चू
और कौन शामत मोल ले शकरकंद की गाली देकर
अब आप किसी को लल्लू भी तो नहीं कह सकते।

समाचारों की दुखद घड़ी

बिग बी के बीमार पड़ जाने से
पूरा बालीवुड आईसीयू में भर्ती है
मंत्रियों की फौज अपना मुंह दिखाने में लगी है
नेताओं की कतार गुलदस्ता लेकर खड़ी है
भीषण दुःख की इस घड़ी में पूरा देश स्वास्थ्य कामना में
एक पांव पर खड़ा है
कैमरामैन को फुरसत नहीं, रिपोर्टर किनकी बाईट ले
बस आज का समाचार इतना ही।

ऐश्वर्या के गले में खराश है
ऐसे में आज समाचार पढ़ना शिष्टाचार के खिलाफ होगा।

इन खबरों के प्रायोजन में
विज्ञापनों की झड़ी लग गई
यह कंपनियों की ओर से शुभकामना और हमदर्दी है।
इसे बटोरने में कैमरे का शीशा टूट गया
और रिपोर्टर के बीमार पड़ जाने से
आत्महत्या करनेवाले किसानों के घर
और परिजनों की पीड़ा नहीं दिखाई जा सकी
इस भारी अफसोस में डूबे चैनलों पर
सारा दिन फैशन शो की बाढ़ रही।

(समकालीन भारतीय साहित्य माच-अप्रैल 2009 में प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

  1. किस पर टिप्पणी दूँ समझ नहीं आ रहा एकसे बढ़कर एक कविताएँ -हार्ड हिटिंग-समकलीन-व्यंग......बेहतरीन पर फिर भी "रोटी एक" गजब की थी

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  2. अमित्राघात की प्रतिक्रिया पर,
    भाई,
    इस बाजार ने अपार्टमेंट, पिज्जा, बर्गर, मल्टीप्लेक्स, एमएनसी को बेहद आसान बना दिया। रोटी-नून को लाले पड़ने लगे हैं। आज से 61 साल पहले ( 20 मई 1949 को) सांसदों को 750 रुपए से बढ़ाकर 1000 रुपए मासिक देने का प्रस्ताव लाया गया तो उस समय तीखे विरोध का सामना करा पड़ा था। 17 अक्टूबर 1949 को मद्रास से सांसद वी आई मुनीस्वामी पिल्लई ने दैनिक भत्ता घटाकर 40 रुपये करने के लिए प्रस्ताव पेश किया। इसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। आठ करोड़ की आबादी को प्रतिदिन 20 रुपए नसीब हो रहे हैं और आबादी के 30 फीसदी हिस्से के लिए सालाना 100 दिन का रोजगार का ढिंढोरा भी फेल कर गया है। दिल्ली सरकार के कैबिनेट ने अगर एक प्रस्ताव को मंजूरी दे दी तो दिल्ली के विधायकों का वेतन और भत्ता तीन गुना बढ़कर एक लाख रुपये से भी ज्यादा हो जाएगा। अब दूसरे राज्यों के लिए यह मानक भी तो हो सकता है। उन खद्दरधारियों के लिए वह प्लेन कितना आसान हो गया है जिसका तेल 42 से 43 हजार रुपए प्रति लीटर है और किरासन तेल के बिना 30 फीसदी आबादी अंधकार में जी रही है।

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